Tuesday, June 26, 2018

निठारी से भी ज्यादा जघन्य अपराध पर सिविल सोसाइटी चुप क्यों ?



बिहार आन्दोलन उर्वरता की धरती है ı आज तक हुए सभी राष्ट्रीय आंदोलनों में बिहार और इसके लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है ı ऐसे में समाज के मसलों और सामाजिक मुद्दों पर कार्य करने वालों लोगों एवं संगठनों का बहुतायत में होना भी स्वाभाविक है ı वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, ग्रासरूट सभी स्तर के हजारों स्वयं सेवी संगठन विभिन्न मुद्दों पर अपने-अपने तरीके से कार्यरत हैं ı हलाकि समय के साथ स्वयं सेवी संगठनों का चरित्र भी बदला है और वे प्रोजेक्ट आधारित कामों तक ही सिमित होने लगे हैं तथापि महिलाओं, दलितों, और बच्चों के सवाल पर ये व्यवस्था की कमियों के खिलाफ और न्याय के लिए आवाज मुखर करत रहे हैं ı पिछले कुछ माहों में महिलाओं, अल्पसंख्यकों और दलितों के साथ होने वाले हिंसा के विरुद्ध धरना, भूख हड़ताल, रैली, कैंडल मार्च, प्रतिरोध मार्च, राजभवन मार्च, जैसे कार्यक्रम आयोजित हुए हैं ı लेकिन मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में बच्चियों के साथ बलात्कार, शारीरिक हिंसा और देहव्यापार में धकेलने की खबर आने के बाद इन सबकी चुप्पी चिंता का विषय है.

आये दिन बच्चों के अधिकार के सवाल पर पटना के बड़े होटलों में अंतर्राष्ट्रीय स्वयं सेवी संगठनों द्वारा बड़ी-बड़ी कार्यशालाएं आयोजित होती हैं ı इनके आयोजनकर्ताओं में कईयों की पहचान तो सरकार के साथ जन पैरवी कर नीतियों को प्रभावित करने और बच्चों के हित में योजनाओं को गढ़ने वाली है, जाहिर है ये बहुत ही विशेषज्ञ और कमिटमेंट के साथ काम करने वाली संस्थाएं हैं ı लेकिन टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के “कोशिश” टीम के द्वारा बिहार के गृहों (जिनका सञ्चालन स्वयं सेवी संगठनों द्वारा सरकार के समाज कल्याण विभाग के सहयोग से किया जाता है) के सामाजिक अंकेक्षण का रिपोर्ट आने के बाद और एफ. आई. आर. एवं गिरफ़्तारी के बाद भी इनकी चुप्पी बहुत ही गहरे सवाल करती है जिसका उत्तर तमाम तरह के स्वयं सेवी संगठनों, नेटवर्कों, सोशल एक्टिविस्टों और इस मुद्दे पर कार्यरत प्रोफेशनल्स को देना होगा ı

सबसे चिंता का विषय यह है कि कोई भी बड़ी संस्था, संगठन, नेटवर्क सड़क पर क्यों नहीं उतरा ı बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठन जैसे यूनिसेफ, सेव द चिल्ड्रेन, प्लान इंडिया जो पुरे विश्व में बच्चों के साथ काम करने के लिए जानी जाती है ı ये ऐसी संस्थाएं हैं जो बच्चों के मुद्दे पर कई देशों के सरकार को झकझोरने का मादा रखती हैं ı ये सब न सिर्फ बिहार में काम कर रही हैं बल्कि इन सबकी दमदार उपस्थिति सरकार के अन्दर भी है ı इन सभी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के कार्यालय पटना में हैं और इनके पदाधिकारी बिहार में बैठते हैं ı विगत कई वर्षों के इतिहास खंगालने पर भी ऐसा कोई जघन्य अपराध का मामला याद नहीं है, और ऐसा मै इस कारण से कह रहा हूँ कि निठारी केस में भी निठारी और उसका नौकर संलिप्त था और लोकल पुलिस शिथिल थी, राजस्थान में हुई अपना घर के केस में भी सिर्फ संचालक की संलिप्तता थी जबकि मुजफ्फरपुर में गृह संचालक से लेकर बाल कल्याण समिति एवं जिला बाल संरक्षण इकाई के पदाधिकारी सभी की संलिप्तता सामने आ रही है और अगर न्यायिक जाँच हो तो बड़े सफेदपोशों के चेहरे भी सामने आयेंगे ı इतने जघन्य अपराध मामले में भी किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है ı यह अपने आप में चिंता का विषय है ı यहां यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि निर्भया की घटना के बाद यूनिसेफ ने आधिकारिक बयान जारी किया था (आप इस लिंक पर क्लिक कर देख सकते हैं - http://unicef.in/PressReleases/41/The-UN-in-India-Condemns-the-Gang-Rape-of-Delhi-Student ) जबकि यहाँ कई निर्भया का सवाल है लेकिन यूनिसेफ के कार्यालय से तो दूर बिहार में इसके किसी पदाधिकारी ने अधिकारिक तौर पर कोई बयान भी नहीं दिया है ı

बिहार में एक्शनएड जैसी संस्थाओं की उपस्थिति कम दमदार नहीं है जो किसी भी प्रकार के शोषण और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने और अपने जूझारू चरित्र के लिए जाना जाता है, इनकी चुप्पी भी सालती है ı बिहार में एक्शनएड, यूनिसेफ, सेव द चिल्ड्रेन, प्लान इंडिया, कैरितास जैसी अंतर्राष्ट्रीय स्वयं सेवी संगठनों के साथ सैकड़ों ग्रासरूट संगठन और नेटवर्क काम करती हैं जिनकी पकड़ जमीन पर काफी मजबूत है और ये सभी जिलों में काम करने का दावा भी करती हैं खासकर दलित अधिकार, महिला अधिकार, बाल अधिकार, मानव व्यापार जैसे संजीदा मुद्दे पर, लेकिन ये सब खामोश हैं ı इतना ही नहीं बिहार, नोबेल पुरस्कार विजेता माननीय श्री कैलाश सत्यार्थी जी का यह कर्मभूमि रहा है, और आज भी उनका संगठन बचपन बचाओ आन्दोलन यहां कार्यरत है ı ये चुप्पी नैतिक और सैद्धांतिक तौर पर चरित्र से जुड़े सवाल खड़े करती है ı

अगर इनके चुप्पी के कारणों पर ध्यान दें तो सरकार का स्वयं सेवी संगठनों पर बंदिश भी एक बड़ा कारण हो सकता है ı दूसरी बात यह है कि सभी अंतर्राष्ट्रीय संगठन आज सरकार के साथ काम करने या उनके गुड बुक में रहने को इतनी उतावली हैं कि अब ये बिना रीढ़ की हड्डी की हो गई हैं और अपने स्वयं के सिद्धांतों और नैतिकता को इन्होने ताक पर रख दिया है ı इसके साथ ही अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में केयर इंडिया जैसी संस्थाओं की भरमार है जो सीधे तौर पर परियोजना चलाने में लगी हैं जिनका जमीनी पकड़ नहीं है और ये सरकारी व्यवस्था के गलतियों पर मुहं बंद रखते हैं ı आज अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में प्रोफेशनल (व्यावसायिक) कर्मचारी होते हैं, जो नौकरीहारा तबका है, उसे सिर्फ आदेश पालन और तनख्वाह से मतलब है, उसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं है ı

कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं जो ग्रासरूट संस्थाओं के साथ कार्य कर रही हैं उन्होंने अपने साझेदार संस्थाओं के चयन में बड़े नाम और टर्नओवर को प्राथमिकता दिया है जिससे उनके साथ ऐसी भी संस्थाएं एवं सोशल एक्टिविस्ट जुड़ गए जिनके द्वारा संचालित गृहों को बंद कराया गया था या बाल कल्याण समिति या किशोर न्याय परिषद् में रहते हुए उनपर बाल अधिकार हनन का आरोप लगा है ı ऐसी परिस्थिति में ये संस्थाएं नैतिक तौर पर अपने आप को कमजोर पाती हैं  जिसके कारण अंतर्राष्ट्रीय संगठन चुप हैं ı इसके फलस्वरूप इनके वे साझेदार भी चुप हैं जो सिद्धांत के साथ समझौता नहीं करते हुए जमीन पर पूरी ताकत से लगे हुए हैं ı ऐसा नहीं है कि करने और बदलने का मादा नहीं है ı बस समझौतावदी परिस्थिति से बाहर आने और गर्द को झाड़ने के लिए झकझोरने की जरूरत है ı

ग्रासरूट संगठनों और सोशल एक्टिविस्टों की चुप्पी कम परेशान करने वाली नहीं है क्योंकि ये ही वो लोग हैं जो आज भी संघर्ष का मादा रखते हैं ı पिछले डेढ़ से दो दशकों के बीच बाल अधिकार पर काम करने वाले संगठनों और एक्टिविस्टों पर भी कई आरोप बाल कल्याण समिति या किशोर न्याय परिषद् के सदस्य या बाल/बालिका गृह संचालन (चाहे वह सरकार द्वारा संपोषित हो या किसी अन्य संस्था द्वारा) की भूमिका निर्वाह के दौरान लगे हैं ı इसने इस शक्ति को थोड़ा कमजोर किया है, कम से कम नैतिक तौर पर तो किया ही है ı आज ग्रासरूट संगठनों एवं सोशल एक्टिविस्टों का एक बड़ा तबका किंकर्तव्यविमूढ़ दिखाई दे रहा है, क्योंकि नैतिक और सैद्धांतिक तौर पर दागदार और साफ छवि का ऐसा गडमगड है कि तय करना मुशकिल है कि किसका साथ इस लड़ाई में लिया जाय और किसका नहीं ı हर पहल में ऐसे लोग सड़कों और मंचों पर साथ आकर खड़े हो जाते हैं जो खुद दागदार हैं ı पिछले कई रैली, धरना, प्रदर्शन के बाद कई साथियों ने विरोध किया कि वह व्यक्ति आपके साथ न्याय के लिए खड़ा था और उसपर स्वयं ही समान अपराध का आरोप है ı समझौते ने खासकर चुप रहने की प्रवृति ने हमें (जिसमे मैं खुद भी शामिल हूँ) इतना कमजोर किया है कि हम बदलने का साहस ही नहीं कर पा रहे हैं ı ये आज की वस्तुस्थिति है और ऐसा नहीं है कि सिर्फ कमजोरियां हैं वरन ताकत इससे कहीं ज्यादा हैं ı बस एक बार फिर इसे बटोरने और समझौते की निति से बाहर आने की जरुरत है ı

मुजफ्फरपुर के मामले में लिपा-पोती की गुंजाईश बनी हुई है इसलिए जरुरी है कि पहल की जाय ताकि जिस साफगोई से सरकार ने रिपोर्ट को स्वीकार किया है उसी तत्परता से दोषियों को सजा भी हो ı कहीं ऐसा न हो कि सारी गलतियों का ठिकड़ा एक स्वयं सेवी संगठन पर फोड़ दिया जाय और व्यवस्था के अन्दर बैठी बड़ी मछलियाँ जिनके कारण ऐसे स्वयं सेवी संगठनों का चयन होता है और ये सारा कारोबार चलता है वो बच जाएं ı इसको लेकर कई स्तर पर काम करने की जरूरत है - साफ़ छवि (जिनपर कम से कम बाल अधिकार या इसतरह के कोई गंभीर आरोप न हों) स्वयं सेवी संगठन चाहे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हों या ग्रासरूट स्तर के, चाहे एक्टिविस्ट हों या प्रोफेशनल उनको इकठ्ठा किया जाये और जहाँ संस्थागत पहचान के साथ आना संभव न हो वहां व्यक्तिगत तौर पर आयें और सरकार पर दबाव बनायें ı जबतक दोषियों को सजा न हो तबतक लगातार एक नागरिक फोरम बनाकर संघर्ष करें ı सरकार पर दबाव बनाया जाय कि टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज द्वारा गृहों के सामाजिक अंकेक्षण की रिपोर्ट को साझा किया जाय और अन्य दोषियों पर भी कार्रवाई होı इसके साथ ही सरकार पर उन नियमों और नीतियों को बदलने का दबाव भी बनाया जिसके कारण “सेवा संकल्प एवं विकास समिति” जैसी संस्थाओं का चयन होता है और अव्यवहारिक बजट में स्वयं सेवी संगठनों को काम दिया जाता है ı सरकार पर दबाव बनाया जाय कि सरकार इसकी न्यायिक जांच किसी वरिष्ट न्यायधीश से कराये ताकि उन पदाधिकारियों पर भी नकेल कसा जा सके जिनके ताल्लुकात कभी न कभी ब्रजेश ठाकुर से रहे हैं ı इसके साथ ही पूर्व में बाल कल्याण समिति या किशोर न्याय परिषद् के सदस्यों पर हुए अन्य केसों/मामलातों को जोड़ा जाय जिनको व्यवस्थागत तौर पर दबाया गया हो ı 

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