Tuesday, July 17, 2018

लोक मैत्री



शहर में  लोक मैत्री के खूब चर्चे हैं मसलन लोक मैत्री अस्पताल, लोक मैत्री पुलिस एवं लोक मैत्री सेवाएँ । एक दिन मुझे भी पुलिस महकमे के एक पदाधिकारी ने लोक मैत्री पुलिस पर परिचर्चा में अपना वक्तव्य देने को बुलाया था । परिचर्चा में अपना वक्तव्य देने के बाद अभी बैठा ही था कि घर से फ़ोन आ गया कि बेटे ने छत से गिरकर हाथ तोड़ लिया है 

मैं तेजी से बाहर निकला और अपनी कार लेकर अस्पताल की ओर भागा 

चौराहे पर पंहुचा ही था कि उल्टी दिशा से एक रिक्शा आते दिखा ... इससे पहले कि मै कुछ समझता .... हलाकि मैंने ब्रेक लगाया ... लेकिन तबतक रिक्शावाला हड़बड़ा  गया ...  वह डरकर ब्रेक भी नहीं लगा पाया और उसने मेरी गारी में टक्कर मार दी .... नतीजतन उसका रिक्शा उलट गया और वह गिर पड़ा। 

मैं कार से बाहर निकला और उसको घुड़की पिलाई।  निरीह प्राणी की तरह रिक्शे वाले ने हाथ जोड़कर कहा साहब गलती हो गई। उसकी मुद्रा देखकर मेरा गुस्सा काफूर हो गया।  उसपर मैं जल्दी में भी था सो रिक्शा उठाने में उसकी मदद करने लगा। 

इतने में एक पुलिस वाला जो चौराहे पर पेड़ के नीचे खड़े रहकर अपनी ड्यूटी कर रहा था वह हमारे पास पहुंचा और मेरी ओर मुख़ातिब होकर बोला "मार दिए न गरीब आदमी को" !

मुझे ये जानकर अच्छा लगा कि चलो, इसे हमदर्दी है रिक्शेवाले से, आखिर लोक मैत्री पुलिस है। 

लेकिन मैं उसके सामने अपनी बेगुनाही भी साबित करना चाहता था...और यह अत्यावश्यक भी था ...   क्योंकि जब भी सड़क पर किसी को ठोकर लगता है तो ठोकर मारने वाले, और ठोकर लगने वाले के अलावा, वहां इकठ्ठा हुआ सभी व्यक्ति को अपने न्यायधीश होने का गुमा होने लगता है ... और देश की अदालतों में फैसला तो वादी के स्वर्ग सिधारने के बाद भी आता है लेकिन इन न्यायधीशों की खूबी यही है कि ये फैसला त्वरित करते हैं ...  न्यायपालिका और कार्यपालिका के लेटलतीफी और नकारेपन के खिलाफ जो गुस्सा होता है वो उसका बदला यहीं लेने लगते हैं। 

इससे पहले की मैं अपनी बेगुनाही साबित करता ...  तबतक रिक्शे वाले ने पुलिस वाले को हाथ जोड़कर कहा कि साहब, इसमें इनकी गलती नहीं थी।  लेकिन पुलिस वाले ने उसे बीच में ही टोकते हुए चुप रहने को कहा....और रिक्शावाला डर कर चुप हो गया। 

मैंने बात बिगड़ता देख अंग्रेजी में बोलना शुरू किया ताकि पुलिस वाले पर धौंस जमाया जाय। वैसे भी कहा जाता है कि अंग्रेजी बोलने के मतलब है कि आप ज्यादा जानकर और रसूख वाले हैं ... एक कहावत है अंग्रेजी में "एवरीथिंग साउंड्स गुड इन इंग्लिश" ...  

5 मिनट तक मेरी अंग्रेजी सुनने के बाद पुलिस वाले ने कहा ... वह सब तो ठीक है लेकिन धक्का तो लगबे न किया है ... है कि नहीं ?... क्या जी ?... रिक्शे वाले से पूछा ... रिक्शे वाले ने हामी में सर हिलाया  ... नहीं हिलाता तो अगले दिन उसकी शामत आ जाती । 

पुलिस वाले ने  मैत्रीपूर्ण तरीके से इसका रास्ता सुझाया ... छोड़िये ... एक काम कीजिये ... 50 रूपये रिक्शे वाले को दे दीजिये इसका पेडल टूट गया है ... और 100 रुपया हमलोग को दे दीजिये आखिर आपही लोग के सेवा के लिए न धुप आ बरसात में  में खड़ा रहते हैं ... मैंने सोंचा इतनी लोक मैत्री पुलिस है अपनी, हम बेकार ही इसपर चर्चा करते रहते हैं ... 


Monday, July 9, 2018

तब मैंने समझा (कविता)


1

जब पहली बार
खल्ली पकड़ी
ना, पकड़ी नहीं
पकड़ाई गई
तदुपरांत
लिखवाया गया
पकड़े था कोई
मेरे हाथ
फिर कुछ आड़ी-तिरछी
कुछ ऊपर नीचे
फिर कुछ उसका नाम
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

2
फिर कहा गया
जो सिखा है
उसे जोड़ो
अन्यथा वो
बेमतलब है
या कम से कम
किसी काम का नहीं
फिर उन्हें
जोड़ना सिखा
फिर उसका कुछ
अर्थ बताया गया
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

3
फिर कहा गया
कि शब्द अकेले
नाकाफी हैं
सीखो इनका
विन्यास बिंधना  
फिर जैसे माँ
अपनी बालों को
गूंथा करती थी
मैंने शब्दों को
गूंथना सिखा
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

4
जब उन
शब्द विन्यासों को
एक वाकय का
रूप दिया
तब कहा गया
इनका तारतम्य रखो
अपनी बुद्धि को चुनौती दो
अपनी समझ से संघर्ष करो
फिर लिखो
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

5
जब मैंने सिखा
वह सब
नाराज हो गए
कई लोग
कुछ ने कहा
विवेक से काम लो
व्यावहारिक बनो
चुप रहना सीखो
अपनी समझ बढ़ाओ
समझौता करो
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे
समझौता करना ... चुप रहना ...



Tuesday, July 3, 2018

क्यों लोग एक घटना में सड़क पर उतरते हैं और दूसरे में नहीं ?


सामाजिक सरोकारों को लेकर समाज में चिंतन का तक़रीबन शून्यता के स्तर तक पहुँच जाना, चिंता का विषय है। एक तरफ तो इसने हमारे बीच संवेदनहीनता को बढ़ावा दिया है, वहीँ दूसरी ओर हैवानियत को पोषित भी किया है। पक्ष और विरोध की धारा में हम इस तरह बंटे हैं कि जब किसी घटना के बाद कोई भी नागरिक पहल होती है, तो कुछ लोग इसपर सवाल करते हैं। इसे हमेशा किसी दल के पक्ष समर्थन या विरोध के रूप में देखा जाता है। ऐसी-ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं, मानो इंसानियत समुद्रतल में कहीं डूब गया हो।

आज सोशल मीडिया, समाज में अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन एवं मंच है। अतिश्योक्ति न होगी अगर यह कहा जाय कि सोशल मीडिया पर जो तस्वीर बन रही है वह हमारे समाज का प्रतिबिम्ब है। जो प्रश्न सोशल मीडिया पर पूछे जाते हैं वे हमारे समाज के बंटवारे (खासकर राजनीति से प्रेरित) एवं द्वंद्वों की ही अभिव्यक्ति है। ऐसे में यह आवश्यक है कि इन प्रश्नों को अनुत्तरित न छोड़ा जाये। हमें साझा तौर पर इन प्रश्नों के सैद्धांतिक और तार्किक जवाब ढूँढने का प्रयास करना चाहिए।

मैंने सोशल मीडिया पर जो सबसे ज्यादा प्रश्नों को देखा है और सामना किया है वो है आप फलां घटना पर तो बोलते हैं, फलां घटना पर क्यों नहीं बोलते। मैं दो हालिया घटनाओं के मार्फ़त चर्चा को आगे ले जाना चाहता हूँ। पहली घटना जब बक्सर के नंदगाँव में दलितों पर पुलिसिया जुर्म हुआ तब पटना में सोशल एक्टिविस्टों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, लेखकों ने मिलकर एक प्रतिरोध मार्च का आयोजन किया जिसमें मैं भी शामिल था। इस कार्यक्रम की तस्वीर अख़बारों में आने के बाद मेरे कई साथियों ने सोशल मीडिया के मार्फत पुछा कि आप के पास कोई काम-धाम नहीं है क्या?” “आप इन घटनाओं का विरोध करते हैं बाकी में चुप क्यों रहते हैं? ...”

कठुआ में हुई बलात्कार की घटना के बाद जब कैंडल मार्च निकला गया तब भी यह पूछा गया कि इसमें क्यों?” जहानाबाद का विडियो जब वायरल हुआ तो लोग सड़क पर आये। पुनश्च: ये सवाल सामने आया। इसके बाद जब मंदसौर की हैवानियत की खबर आई तो फिर पूछा गया कि आज चुप क्यों?” इस तरह की कई घटनाएँ हैं जब ऐसे सवाल पूछे गए। अब यहाँ जो लोग सवाल पूछ रहे हैं उनके बारे में भी जानना जरूरी है क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर दिया जाने वाला जवाब तो सवाल पूछने वाले की प्रकृति/चरित्र के अनुसार नहीं बदलेगा, लेकिन सबसे पहले किन प्रश्नों का उत्तर देना है, उसके चयन में यह निर्णायक भूमिका निभाता है।

ऐसे सवाल पूछने वाले ज्यादा लोग डेवलपमेंट सेक्टर/सोशल सेक्टरअर्थात सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले हैं। जिन्हें कायदे से तो इस पहल में शामिल होना चाहिए था लेकिन अपने अंतर्द्वंद्वों एवं सैद्धांतिक/तार्किक अस्पष्टता के कारण दूर खड़े सवाल कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि ये राजनीति है/राजनैतिक मसला है/ राजनीति से प्रेरित है। क्योंकि जिन घटनाओं में पहल हुई है वो सीधे तौर पर सरकार के विरुद्ध हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे पहल में शामिला न होकर वो राजनीति का हिस्सा बनने से बचते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि दोनों परिस्थितियों में ही वे राजनीति के हिस्सा होते ही हैं। खैर, इस पर किसी और दिन चर्चा करेंगे।

आज यहाँ सर्वप्रथम उस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश करेंगे जो हमसे दूर खड़े साथियों के अंतर्द्वंद्वों को समाप्त करने की कोशिश करे और वे हमारे साथ खड़े हो सकें। इतना ही नहीं, उनको सैद्धांतिक/तार्किक तौर पर मजबूत करें जो कई बार साथ आते हैं पर उनके मन में वह सवाल उठता रहता है कि इस घटना में क्यों ? उस घटना में क्यों नहीं ? यहाँ एक घटना का वर्णन करना समीचीन होगा कि कठुआ मामले में पटना में आयोजित कैंडल मार्च में एक महिला साथी ने भाग लिया, लेकिन घर उन्होंने आकर फेसबुक के मार्फ़त सवाल खड़ा किया कि कठुआ मामले में लोग खड़े हो रहे हैं और बाकी मामले में लोग चुप रहते हैं, ऐसा क्यों? उन्होंने उस मामले को धर्म से जोड़कर भी देखा। ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि पक्षधरता के प्रश्नों का उत्तर तलाशा जाये।

सर्वप्रथम तो यह समझना जरूरी है कि हमारे देश के संविधान ने सभी नागरिकों को न्याय का समान अधिकार दिया है। अगर किसी के साथ अन्याय होता है तो वह पुलिस, न्यायालय के पास न्याय हेतु जा सकता है। इसमें सबसे पहली कड़ी है पुलिस, उसके बाद है न्यायालय और आखिर में सत्तासीन लोग, क्योंकि कई मामलों में उनका पहल जरूरी होता है। अर्थात् अगर आपके साथ अन्याय होता है तो सर्वप्रथम पुलिस के पास जायेंगे जो आपकी रक्षा करेगी। इसके बाद आप न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे।

किसी गाँव में एक अपराधी ने किसी की हत्या कर दी। पुलिस ने थाने में केस दर्ज कर अपराधी को गिरफ्तार कर लिया अथवा सभी कानूनी प्रक्रिया पूरी अपराधी को पकड़ने की कोशिश कर रही है। दूसरी घटना में एक दबंग/पुलिसकर्मी ने एक व्यक्ति की हत्या कर दिया। पुलिस केस दर्ज नहीं कर रही है। या जानबूझ कर अपराधी को बचाने का प्रयास कर रही है। दोनों ही घटना में एक व्यक्ति की हत्या हुई है लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि प्रथम घटना में पीड़ित पक्ष के संविधान प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत न्याय एवं संरक्षण की प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं है। जबकि दुसरे केस में पुलिस, जिससे संरक्षण की दरकार थी वह हमले कर रही है या उससे इन्कार कर रही है। जाहिर है यहाँ पीड़ित असहाय है, ऐसे में समाज की भूमिका बनती है कि वह उसकी मदद करे और न्याय के लिए आवाज उठाये। स्टष्ट तौर पर कहें तो अगर व्यक्ति आप पर हमला करता है तो पुलिस और न्याय व्यवस्था के पास जा सकते हैं, लेकिन पुलिस हमला करे और आपको न्याय पाने से रोके तो आपके न्याय की उम्मीद समाप्त हो जाती है जो हर व्यक्ति का अधिकार है। इसलिए लोग दूसरी घटना में सड़क पर आयेंगे।

जहानाबाद मामले में पुलिस ने जिस प्रकार से सामूहिक बलात्कार को छेड़छाड़ का मामला बनाकर दर्ज और पेश किया, कठुआ मामले में पुलिस की संलिप्तता और वकीलों का विरोध किया, ऐसे में नागरिक पहल आवश्यक था। नंदगाँव में पुलिस ने पीटा, केस किया और गर्भवती महिला एवं किशोरियों को घसीट कर थाने ले गई। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि नागरिकों के द्वारा जब भी पहल होगी तो वह सत्ता के विरुद्ध ही प्रतीत होगी, क्योंकि व्यवस्था को दुरुस्त और न्यायपूर्ण रखना उसका कर्तव्य है। उनसे कर्तव्यों में चूक होती है, तभी नागरिकों के पहल की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही कई घटनाओं, मसलन भीड़ की हत्या के विरूद्ध भी नागरिकों द्वारा पहल होती है, खासकर तब जब सरकार में बैठे लोग चुप हों, क्योंकि भीड़ इसे मौन सहमति समझता है, इससे भीड़ को शह मिलता है।

हिंसा का कोई भी रूप स्वीकार्य नहीं है, लेकिन सबसे ज्यादा खरतनाक हिंसा वह है, जिसमें व्यवस्था (पुलिस, प्रशासन, न्यायालय) शामिल हो या जिसे सत्ता में बैठे लोगों का समर्थन प्राप्त हो। ऐसे घटनाओं में हमें पहल करना चाहिए। यही हमारी पक्षधरता है, और सामाजिक धर्म भी, हम कमजोर के साथ खड़े हों । और सबसे सरल अर्थ में कमजोर वही है, व्यवस्था जिसके खिलाफ है।



एक अधूरी कविता

ये उछलते-कूदते शब्द अख़बारों के ये चीखती आवाजें बुद्धू-बक्सदारों के ये अजीब बेचैनी इन रसूखदारों के ये छलांग, ये चीखें, ये बेचैनी, ये फ...