मुजफ्फरपुर मामले
में बच्चियों के इंसाफ की लड़ाई अब उसी दिशा में जा रही है जिस दिशा में उसे जाने
से रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी लगे हुए थे. जंतर-मंतर पर
विपक्ष का इस मुद्दे पर एक होकर आवाज उठाने की कवायद को लेकर हम जितने आशान्वित थे
अब वो आशा धूमिल होने लगी है और इनकी मंशा पर पड़ा धुंध छंटने लगा है. शनै: शनैः यह
स्पष्ट होने लगा है कि मुजफ्फरपुर के बच्चियों की लड़ाई को कमजोर करने की कोशिश में
पक्ष और विपक्ष दोनों समान भूमिका अदा कर रही है. रहबर बेरहम हो जाए तो पथिक क्या करे.
इसका स्पष्ट उदहारण
है जंतर-मंतर पर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का भाषण. जिस प्रकार मुजफ्फरपुर के
बच्चियों को न्याय दिलाने से ज्यादा वे मधुबनी बालिका गृह (परिहार सेवा संसथान
द्वारा संचालित) से भागी हुई बच्ची को मुख्य मुद्दा बनाकर जदयू पर निशाना साध रहे
थे वो बच्चियों को न्याय दिलाने के इरादे से नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक अदावत साधने
के लिए था. उन्होंने अपने भाषण में इस मसले को ऐसे पेश किया मानो पूरी न्याय की
प्रक्रिया सिर्फ उस बच्ची के कारण ही रुकी पड़ी है. दूसरी बात यह कि वे बार-बार उस
बच्ची को मुख्य गवाह बता रहे थे जबकि मीडिया रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि वो बच्ची
मूक है और मानसिक रूप से विक्षिप्त भी. उसकी गवाही नहीं हुई थी तो मुख्य गवाह को
गायब करने की बात कहाँ है.
एक और बात यह कि
पहली दफा नहीं है कि होम से बच्चियां भागी हैं. पहले ऐसा कई बार हुआ है. ऐसी
घटनाओं को रोकने के लिए अलग से बात हो सकती है और जरुरी भी है. ऐसा नहीं कि उस
बच्ची की अहमियत कम है या उसका भाग जाना सवाल नहीं पैदा करता है लेकिन क्या ये
सवाल वाकई उन 40 बच्चियों के साथ हुए अन्याय से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि विपक्ष का
पूरा महकमा मधुबनी मामले के पीछे लगा है. सनद रहे कि जिस TISS की रिपोर्ट के आधार
पर यह कुकर्म सामने आया है TISS की उसी रिपोर्ट में
ऑब्जरवेशन होम दरभंगा को good practices की सूचि में रखा
गया है जो कि परिहार सेवा संस्थान द्वारा ही संचालित है.
अब यह भी नहीं कहा
जा सकता कि जो बातें आम सजग लोगों को मालूम है वो तेजस्वी यादव को मालूम नहीं होगी.
तो प्रश्न यह उठता है कि क्या जान बुझकर तेजस्वी यादव सबका ध्यान मुजफ्फरपुर से
हटाकर मधुबनी की ओर मोड़ना चाहते हैं? उनको मालूम है कि
सीबीआई भी इससे प्रभावित होगी क्योंकि वो आम आदमी नहीं पूर्व उप-मुख्यमंत्री भी
हैं. वो कोशिश में लगे हैं कि सीबीआई पूरी तरह मधुबनी के जाँच में लग जाए. इससे
मुजफ्फरपुर की जाँच प्रक्रिया में ठहराव आएगा और चार्जशीट दाखिल करने में विलम्ब
हो. इससे किसको फायदा होगा ये बताने की जरुरत नहीं है. तो क्या यह कहना गलत होगा
कि तेजस्वी एक तीर से दो निशाने लगा रहे हैं. एक तरफ तो वो जदयू को निशाना बना रहे
हैं दूसरी तरफ दोषियों को फायदा पहुंचा रहे हैं भले ही यह प्रत्यक्ष न हो. वैसे भी
इस मामले में इन्होने भी अपना मुहँ 2 महीने बाद ही खोला है, वो भी महिला
संगठनों के लगातार बढ़ते दबाव के बाद.
इसके इतर कई नए
मोर्चे उन्होंने खुलवा दिए हैं जिसमें सबसे ताजा है उनके सबसे अनुभवी और सधे हुए
राजनेता शिवानन्द तिवारी का बयान जिसका पासा सुशील मोदी ने फेंका था. सुशील मोदी
को मालूम था कि 2008 में हुई घटना को लेकर अगर सवाल किये जाएँ तो कोई न कोई
तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव के बचाव में आएगा ही और मुजफ्फरपुर मामले से ध्यान
भटकाया जा सकेगा. सुशील मोदी तो अपना गठबंधन धर्म निभा रहे थे तो आपके पार्टी के
वरिष्ठ नेताओं को इसमें पड़ने की क्या आवश्यकता थी. ऐसा तो है नहीं कि इस मामले को
उठाने के पीछे की मंशा तेजस्वी यादव को और उनकी पार्टी के वरिष्ट नेताओं को समझ
नहीं आ रही थी. और अगर आप इतनी बात नहीं जानते तो बिहार का नेतृत्व करने का दावा
कैसे करते हैं.
सरकार भी अपने बचाव
में शतरंज के विसात पर धड़ा-धड़ प्यादों पर करवाई कर यह दिखा रही है कि वह बहुत ही
संवेदनशील है. सच तो यह है इस जघन्य अपराध के लाभार्थियों का बाल तक बांका नहीं
हुआ है. अभी तो सिर्फ इतने ही तक बात सीमित है कि इन बेटियों का सौदा हुआ, इनको बेरहमी से
नोचा गया. ब्रजेश ठाकुर और उसके साथ के लोग बिकवाल थे. तो खरीददार कौन है? कहाँ हैं वो लोग
जिन्होंने इन बेटियों के रूह को बेरहमी से नोचा. मिडिया मुजफ्फरपुर को छोड़कर मधुबनी
को प्रमुखता दे रही है क्योंकि इसमें मसाला ज्यादा है. सिर्फ कुछ ही मीडिया के लोग
बचे हैं जो अभी भी मुजफ्फरपुर की बात कर रहे हैं जो ये समझ रहे हैं कि मुजफ्फरपुर
के दोषियों को बचाने की जुगत में पूरा राजनैतिक महकमा लगा हुआ है भले वह पक्ष में
हो या विपक्ष में.
मुख्यमंत्री की
मनसा भी इससे ही स्पष्ट होती है कि वो बाल संरक्षण वाले सभी कर्मचारियों को हटा कर
प्रसाशनिक कर्मचारियों को लगा दिया गया और राज्य के पूरी बाल संरक्षण व्यवस्था को
तोड़कर घुटने पर ले आये हैं. दूसरी तरफ यह भी कि रेल मंत्री रहते हुए नैतिकता के
सवाल पर नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया था उन्ही के मंत्रिमंडल के समाज कल्याण
विभाग के मंत्री के पति पर आरोप लगने के बाद भी उन्होंने मंत्री का इस्तीफा नहीं
लिया. क्योंकि उनको डर है कि अगर इनको इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो कुशवाहा वोट
खिसक जायेगा. और दूसरी ओर उपेन्द्र कुशवाहा इस ताक में हैं कि मंजू वर्मा उनके साथ
आ जाए और उनको नीतीश कुमार को साधने का मौका मिले. तेजस्वी यादव भी कई बार
उपेन्द्र कुशवाहा को अपने साथ आने का न्यौता दे ही चुके हैं तो कुल मिलाकर यह पूरा
मामला राजनैतिक है. बच्चियों की किसी को नहीं पड़ी.
महिला नेताओं, सामाजिक
कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों ने
तो नेताओं से चुप्पी तोड़ने के लिए इसलिए अपील किया था कि उनका बोलना पीड़ित
बच्चियों को न्याय दिलाने में मददगार साबित होगा. लेकिन अपने फायदे के लिए अब ये
लोग इस मुद्दे को न्याय प्रक्रिया से बाहर धकेलने में लगे हैं. जब से लोकसभा और
विधान सभा (दोनों सदन) में यह मुद्दा उठा है तब से सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला
नेताओं की भूमिका कम हो गई. राजनैतिक लोग ही सक्रिय हैं और अपनी रोटी सेंक रहे
हैं.
ऐसे में यह जरुरी
हो गया है कि गैर-राजनैतिक महिलाओं और सामाजिक
कार्यकर्ताओं को वापस लड़ाई की कमान अपने हाथ में
लेनी चाहिए. मुजफ्फरपुर होम की बेटियों के न्याय वास्ते यह जरुरी है कि ये लोग आगे
आयें पूरे दम ख़म से मुजफ्फरपुर के दोषियों को सजा दिलाने के लिए काम करें, अन्यथा पूरे बिहार
की बात होगी लेकिन मुजफ्फरपुर होम की बेटियों को न्याय नहीं मिलेगा.
रणविजय
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