Tuesday, August 22, 2017

नया नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों वाला भारत चाहिए

नया नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों वाला भारत चाहिए

वर्तमान राजनैतिक स्थिति में सत्ता के बाहर जो मुद्दों की राजनीति है उसमे एक स्पष्ट निराशा दिखाई देती है . ऐसा इसलिए है कि इसमें एक सीधा लकीर खींचने की कोशिश की जा रही है जबकि सत्ता के परे जो राजनीति होती है वह आम सरोकार के मुद्दे पर होती है . वर्तमान सत्ता से बुद्धिजीवी वर्ग भी इतना आतंकित है कि कुछ नया सोंच हीं नहीं पा रहा है और तथाकथित जो सेक्युलर राजनैतिक दल है जिनका सत्ता पाने के अलावे और कोई लक्ष्य नहीं है के पक्ष में खड़े हो गए हैं और उन्हीं में अपना भविष्य देख रहे हैं .
ये बुद्धिजीवी, सेक्युलरिस्ट और सोशल एक्टिविस्ट, चाहे जो अपने आप को जिस नाम से पुकारते हों, से मेरा अभिप्राय सिर्फ उनसे है जो प्रजातान्त्रिक मूल्यों को मानते हैं, और उसके प्रति अपनी आस्था जताते हैं . ये सबके सब निराशावादी, कमजोर और दंतविहीन हो चुके मालूम होते हैं क्योंकि इनकी रचनात्मकता समाप्त हो चुकी है या ऐसा सिर्फ इसलिए है कि ये समर्पण कर चुके हैं . ऐसा कहने के पीछे कुछ कारण है .
पहला कारण यह कि भ्रष्टाचार के जिस आड़ में सांप्रदायिक ताकते आगे बढ़ रही हैं उसका जवाब इनके पास नहीं है क्योंकि ये विकल्प तैयार करने के बजाय भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे राजनेताओं के साथ खड़े हो जाते हैं . ऐसा नहीं है कि जो पार्टी भ्रष्टाचार को अपना मुद्दा बना रही है उनके नेता भ्रष्ट नहीं हैं बल्कि उनके भ्रस्टाचार के तरीके इनसे ज्यादा बेहतर रहे हैं इसलिए अभीतक पकड़े नहीं गए . जब लोग यह कहते हैं खासकर मध्यमवर्ग युवा कि अमुक नेता पढ़ा लिखा नहीं है या भ्रस्टाचार में लिप्त है, तो इनका बड़ा हास्यास्पद जवाब होता है कि सभी चोर हैं जिससे एक युवा वर्ग इनके साथ खड़ा नहीं होता है . क्योकि उसे लगता है कि कम  से कम वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलता तो है .   
दूसरा यह कि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए ये उनके साथ खड़े हैं जिन्होंने सभी प्रजातान्त्रिक मूल्यों की सार्वजनिक आहुति दी . इसका सबसे बड़ा उदहारण है बिहार में महागठबंधन के पक्ष में इनका खड़ा होना . यह वही गठबंधन है जिसके दोनों मुखियाओं ने सबसे अधिक अलोकतांत्रिक फैसले लिए हैं और धरना प्रदर्शन कर रहे लोगों पर सबसे अधिक लाठियां भी इनकी सरकारों ने हीं बरसाई है .
पटना में धरना स्थल शहर से बाहर कर लोगों के अपने पक्ष रखने और बड़े जनसमूह को साथ लाने के अवसर के खिलाफ साजिश करने वाले नितीश कुमार महागठबंधन के मुखिया बने . चंद्रशेखर प्रसाद जैसे नेता की हत्या कराने वाले, जे एन यु के छात्रों के प्रदर्शन पर लाठी और गोली चलवाने वाले का सहयोग करने वाले लालू यादव के साथ खड़ा होते समय ये सभी लोग ये भूल जाते हैं कि ये वही लोग हैं जिन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या की है . ऐसे में इनसे लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई की उम्मीद रखना खुद को धोखे में रखना हीं है .
जिस समय ये सभी लोग महागठबंधन के पक्ष में खड़े हो रहे थे उस समय क्या इनको यह मालूम नहीं था कि सामाजिक अभियन्त्रिकी के हथियार से दलितों, पिछड़ों और अकलियतों की एकता विखंडित करने वाला नितीश कुमार हीं है . क्या इनको यह नहीं मालूम था कि यादवों को लाठी देकर चौराहे पर खड़ा करने वाले लालू यादव हैं, जिसके वजह से आज पिछड़ी जातियों की एकता ख़त्म हुई . यहाँ तक कि दलित भी कई जगह यादवों से संघर्ष कर रहे हैं, और धीरे धीरे कर सभी सांप्रदायिक ताकतों के पक्ष में जा रहे हैं .

प्रश्न यह है कि लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वाश रखने वाले लोग आज से 3 वर्ष पूर्व जब सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध खड़े हुए तो उस समय से विकल्प क्यों तलाशना शुरू नहीं किया ? क्या ये लोग अपनी रणनीति बनाने में चुक गए ? क्या ये थक चुके हैं ? क्या ये निराश हैं ? क्या ये विकल्प तैयार करने में अक्षम है (जबकि आज भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिनके पास 74 आन्दोलन का अनुभव है) ? इन प्रश्नों का उत्तर तलाशना अब लाजिमी है ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षा और सामाजिक न्याय के लिए आन्दोलन हो . नया भारत (जैसा कि प्रधान सेवक ने नारा दिया है) नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों को मानने और व्यवहार करने वाला भारत चाहिए .

Wednesday, August 16, 2017

लघु कथा

लघु कथा 

एक कंपनी का सुसज्जित कमरा जहाँ मैं, एक अन्य भद्र पुरुष एवं एक भद्र महिला के साथ बैठकर साक्षात्कार कर रहा था. एक अभ्यार्थी के जाने और दुसरे अभ्यार्थी के कमरे में आने के बीच के समय का सदुपयोग करने के ख्याल से अपना फ़ोन उठाया और एक परिचित से बात करने लगा कि तबतक नया अभ्यार्थी का कमरे में आगमन हो गया. मैं खड़े होकर कमरे एक कोने में गया, फुसफुसाकर अपनी बात पूरी की और जल्दी में फ़ोन काटते हुए वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया. तबतक उस लड़की ने सभी शिष्टाचारगत प्रक्रिया पूर्ण कर अपना स्थान ग्रहण कर लिया था और प्रश्नों का दौर शुरू हो चुका था. उसने सभी प्रश्नों के उत्तर न  सिर्फ सही दिए थे बल्कि हम तीनों उसकी भाषाई पकड़ के कायल हो चुके थे. हम सबका मन उसपर लटटू हुआ जा रहा था. तभी मेरी नजर उसके रिज्यूमे पर पड़ी जिसमे उसका नाम एमएक्स (Mx.) पाखी लिखा था. मुझे अपनी आखों पर भरोसा नहीं हो रहा था और मेरे अन्दर का आधा मैं जो अब डरकर कह रहा था कि नहीं ऐसा नहीं है के लिए मैंने पूछ लिया कि इसमें तुम्हारे नाम के आगे एमएक्स क्यों लिखा है? मेरे प्रश्न के पूर्ण होते हीं उसने तपाक से बोला क्योंकि मैं ट्रांसजेंडर हूँ  ... हिजड़ा समझते हैं न... ?. इसके बाद जैसे मेरे अन्दर कुछ टूट गया. बाकी दोनों के अन्दर भी शायद ऐसा हीं कुछ हुआ था क्योंकि इसके साथ प्रश्नों का सिलसिला टूट चुका था और हम सिर्फ उसे धन्यवाद कह सके. रौशनी का वह पुंज कमरे के बहार जा चुका था और हमारे स्वयं के अंदर एक घुप अँधेरा था जो उस रौशनी से डर गया था.

बिहार में धृतराष्ट्र आलिंगन : चूका कौन कृष्ण या भीम

  बिहार में धृतराष्ट्र आलिंगन : चूका कौन कृष्ण या भीम 

महाभारत का युद्ध जब समाप्त होता है तो श्रीकृष्ण के सलाह पर सभी पांडव धृतराष्ट्र और गांधारी से मिलने जाते हैं. सभी पांडव अपना नाम बताते हैं और प्रणाम करते हैं. इसके बाद धृतराष्ट्र भीम (जिसने धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन की हत्या की थी) से आलिंगन की इच्छा जताते हैं. श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के मन की बात पढ़ लेते हैं. वो समझ जाते हैं कि यह आलिंगन भीम के लिए मृत्यु से आलिंगन होगा. वे इशारे से कृष्णा को रोकते हैं और लोहे का मूर्ति आगे कर देते हैं जिससे धृतराष्ट्र आलिंगन करते हैं और उसे चुरचुर कर देते हैं. इसे हीं धृतराष्ट्र आलिंगन कहा जाता है.

बिहार में महागठबंधन टूटेगा इसको तो सभी राजनितिक विश्लेषक मानते थे लेकिन इतनी जल्दी यह सब होगा किसी ने सोचा न था. खैर जिस प्रकार गठबंधन टुटा और जिस जल्दी में सरकार बनी उसकी अपनी मजबूरियां थी लेकिन यह कथा इतनी जल्दी समाप्त होता दिख नहीं रहा है. जदयू में जिस प्रकार विरोध के स्वर उभरे हैं संभव है पार्टी टूट जाये हलाकि सरकार गिरने के असर कम हीं हैं. ये बाते तो भविष्य के गर्भ में हैं और आने वाले समय में हीं पता चल पायेगा.

लेकिन इस नए गठजोड़ से एक प्रश्न यह सामने आता है कि जिस प्रकार आज चाणक्य कि बात होती है कि फलां व्यक्ति उस पार्टी का चाणक्य है तो क्या जदयू में कोई कृष्ण नहीं था जो नितीश कुमार को यह बता सके कि मोदी से उनका मिलन धृतराष्ट्र आलिंगन साबित होगा. या अब कृष्ण चाणक्य के सामने अपना अस्तित्व खो चुके हैं? यह प्रश्न कि क्या कृष्ण अवांक्षित हो चुके हैं इसलिए भी लाजिमी हो गए हैं हैं कि यह मिलन तब हुआ जब आलिंगन के पीछे धृतराष्ट्र की मनसा जाहिर हो चुकी थी.

भाजपा के आला नेतृत्व ने कई बार क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद का मुद्दा उठाकर, यह संकेत दिए थे कि क्षेत्रीय पार्टी समस्या की जड़ हैं और इन्हें समाप्त करने की आवश्यकता है. दूसरा जिस प्रकार से भाजपा ने महबूबा मुफ़्ती से गठबंधन कर सरकार बनाया एवं उसके बाद धारा 370 एवं 35 ए पर जो रुख अख्तियार किया है उससे तो यह स्पष्ट हीं है कि क्षेत्रीय दलों के प्रति भाजपा की मंशा क्या है. उसपर सबसे अहम् बात यह कि पूर्व में भी नितीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ा है तो वे भाजपा के गुड बुक में तो हो नहीं सकते हैं.

ऐसे में प्रश्न यह है कि 2019 एवं 2020 में नितीश क्या करेंगे? क्योंकि अब वो सीटों को लेकर मोलभाव करने की स्थिति में नहीं हैं और नरेन्द्र मोदी को नेता मानकर उन्होंने भविष्य के रास्ते भी बंद कर लिए हैं. इधर भाजपा ने नितीश कुमार के जाति के अन्दर किये गए सामाजिक अभियांत्रिकी का फायदा उठाते हुए पिछड़ी जातियों में भी पकड़ बनाया है. लालू प्रसाद के परिवार केन्द्रित होने, गलतियों से न सिखने, हाथ उठाकर (बिना किसी सांगठनिक व्यवस्था के) राजनीति करने, युवाओं को जगह न देने और राजद को यादवों तक सिमित रखने का फायदा भी भजपा उठाएगी जो नितीश उठा सकते थे महागठबंधन में रहते हुए वह भी खो दिया है.

मूल प्रश्न यह है कि क्या भीम ने कृष्ण के सुझाव को न मानते हुए धृतराष्ट्र से आलिंगन कर लिया है ? ये तो आने वाला वक्त बताएगा कि कृष्ण अब अपना दल अलग बनायेंगे या भीम दल से बहार जायेंगे .

Thursday, August 3, 2017

अन्न दाता

अन्न दाता


मैं अन्न दाता हूँ
मैं देश का भाग्य विधाता हूँ
ऐसा कहने वाले तुम हो
मैं  सुनकर चुप रह जाता हूँ
आशा बस इतनी है कि
तेरे भाषणों में अभी आता हूँ

तेरे भाषण से पेट नहीं भरता
मैं भूखा रह जाता हूँ
तुम बारिश में छतरी ओढ़ लेते हो
मैं  उसमे भीग कर खिल जाता हूँ
तुम महलों में चैन से सोते हो
मैं  झोपडी में बिलबिलाता हूँ

बाढ़ सुखाड़ ओला वृष्टि
सबकी चोट मैं खाता हूँ
फिर तेरे वादों के मरहम से
खुद को तसल्ली देता हूँ
मरहम तेरे अधिकारी खाते
मैं  खाली हाँथ लौट आता हूँ

ले जा अपने वादे भाषण
मैं  खेती छोड़ जाता हूँ
ना बनना मुझे भाग्य विधाता
ना हीं देश का अन्न दाता हूँ .....


फिर वही कहानी

सता की रौशनी होती हीं इतनी तेज है कि
जनता की आंखे चौंधिया जाना लाजिमी है
मुद्दे तो आज भी वही हैं दो जून की रोटी का
अलबता बूथ तक जाते जाते हमें तो





सिर्फ धर्म और जात दिखाई देता है 
चौंधियाई आँखों से रोटी कहाँ दिखती है 
मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारे दीखते हैं 
जब ऊँगली पर काली स्याही लगाये 
सीना ताने लौटते हैं 
तब विजयी मुस्कान होता है 
उसी शाम जब रोटी कम पड़ती है
जवान होती बिटिया का बदन 
जब फटे कपड़ों से झांकता है
तब लगता है कि ये हमने क्या किया..
फिर पाँच साल इंतज़ार और फिर वही कहानी.... 


                                                   रणविजय

एक अधूरी कविता

ये उछलते-कूदते शब्द अख़बारों के ये चीखती आवाजें बुद्धू-बक्सदारों के ये अजीब बेचैनी इन रसूखदारों के ये छलांग, ये चीखें, ये बेचैनी, ये फ...