सता की रौशनी होती हीं इतनी तेज है कि
जनता की आंखे चौंधिया जाना लाजिमी है
मुद्दे तो आज भी वही हैं दो जून की रोटी का
अलबता बूथ तक जाते जाते हमें तो
जनता की आंखे चौंधिया जाना लाजिमी है
मुद्दे तो आज भी वही हैं दो जून की रोटी का
अलबता बूथ तक जाते जाते हमें तो
सिर्फ धर्म और जात दिखाई देता है
चौंधियाई आँखों से रोटी कहाँ दिखती है
मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरूद्वारे दीखते हैं
जब ऊँगली पर काली स्याही लगाये
सीना ताने लौटते हैं
तब विजयी मुस्कान होता है
उसी शाम जब रोटी कम पड़ती है
जवान होती बिटिया का बदन
जब फटे कपड़ों से झांकता है
तब लगता है कि ये हमने क्या किया..
फिर पाँच साल इंतज़ार और फिर वही कहानी....
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