Saturday, July 29, 2017

क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के लिए जरुरी है संगठनात्मक ढांचा

बिहार की राजनीति में हो रही उठा पटक ने यह बड़े हीं सशक्त रूप से साबित किया है कि क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में है और देश में राजनीति सिद्धांत और विचारधारा विहीन हो चुकी है. इस प्रकार की राजनीति ने अवसरवादिता और झूठ को बढ़ावा दिया है. सभी अपनी गलती को कुतर्कों और प्रति प्रश्न से या दूसरों पर आरोप लगाकर निकल जाते हैं और यह एक संस्कृति बन गयी है. 

ऐसी कोई भी क्षेत्रीय राजनैतिक दल नहीं है जिसके पास सिद्धांत की राजनीति में विश्वास करने वाले नेता हों और उनका आचरण भी सिद्धांत के अनुकूल हो. ऐसी परिस्थिति में दल के कार्यकर्ता भी उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और अगर उनके मनोनुकूल पद नहीं मिलता तो दूसरी दल में चले जाते है और अपने हीं नेता के विरुद्ध बोलते हैं.  प्रश्न यह है कि बोये पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाए

इस सिद्धांत विहीन राजनीति का सीधा असर विकास और बदलाव की प्रक्रिया पर पड़ता है. यहाँ यह स्पष्ट करना अवश्यक होगा कि विकास से मेरा तात्पर्य ऊँची इमारतें, चमचमाती सड़कें, सुन्दर शहर एवं सड़क पर फर्राटे भरती लम्बी गाड़ियों से नहीं है जो सिर्फ उच्च मध्यवर्ग एवं अभिजात वर्ग तक सिमित हो बल्कि इसका तात्पर्य समाज हाशिये पर बसर कर रहे लोगों को प्राप्त होने वाले फलाफल से है ताकि वे किसी भी बुनियादी सुविधा का आभाव महसूस न करें और विकास की धारा में सामान रूप से लाभार्थी एवं सहयोगी दोनों की भूमिका में रहें. 

ऐसा संभव इसलिए नहीं हो पा रहा है कि राजनीति में वैसे लोगों का बोलबाला है जिनका हाशिये पर बसर कर रहे समूहों से कोई वास्ता नहीं रहा है या फिर उनका उस समुह के नेतृत्व के दावे का आधार सिर्फ जाति रह हो. जिस दल में वो हैं उस दल के पास भी समाज के अभिवंचित समूहों को लेकर कोई दूरदृष्टि नहीं है नतीजतन ये सिर्फ वैसी राजनीति में उलझे रहते हैं जिससे कि वे अपना पद बचा सकें. 

राज्य के विधायक द्वारा विधान सभा के अन्दर किये गए सवालों का मूल्यांकन करने पर यह बड़े हीं स्पष्ट तरीके से उभर कर सामने आता है  कि उनके पास मुद्दों की समझ का आभाव है और उनके ज्यादातर प्रश्न सरकार को घेरने और व्यक्तिगत समस्याएं जो उनतक किसी माध्यम से पहुँचती है से सम्बंधित होता है. किसी भी विधायक ने सशक्त तरीके से बिहार में शिक्षा के सवाल पर सरकार से प्रश्न नहीं पूछा न हीं बिहार में सुखा पड़ने के बावजूद सुखा घोषित नहीं किये जाने के लिए जिम्मेवार अव्यवहारिक निति पर प्रश्न किया गया.

दूसरा उदहारण है कि शहरों से गरीबों को उखाड़े जाने का सिलसिला लगातार जारी रहा और अकेले राजधानी पटना में कई स्लम (झुग्गी बस्ती) उखाड़ दिए गए. वेटनरी स्लम जो 50 से अधिक वर्षों से वहां बसा था, और जहाँ से लालू प्रसाद यादव ने अपनी राजनीति शुरू की थी को उजाड़ दिया गया वह भी तब जब राजद सरकार में थी. वेटनरी के बगल में आमकुरा स्लम को उजाड़ दिया गया और विपक्ष में बैठी भाजपा और इसके विधायक चुप रहे वह भी तब जब पटना शहरी क्षेत्र के चारो विधान सभा क्षेत्र से भाजपा को जीत मिली है और झुग्गी बस्तियों से भी ये वोट बटोरते रहे हैं.

इस समय दलों के भीतर हो रहे आपाधापी में अगर कोई भी क्षेत्रीय दल अपने आपको सशक्त रूप से स्थापित करना चाहता है तो उसे कार्यकर्ताओं को सिद्धांत, विचारधारा, मुद्दा आधारित पक्षधरता एवं संगठन पर प्रशिक्षित करना होगा और दल के अन्दर सत्ता के पदों से संगठन के पदों का महत्त्वपूर्ण बनाना होगा. एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करनी होगी जिसमे सरकारी कार्यक्रमों के नियोजन एवं इसके अनुश्रवण में संगठन के लोगों की भूमिका अहम् हो.

यह दलों को चौतरफा फायदा पहुचायेगी पहला यह कि कार्यकर्ता को अपनी भूमिका के बारे में स्पष्टता होगी तो वे संगठन से जुड़े रहेंगे. कार्यकर्ता के लिए चुनाव एवं रैली या अन्य राजैनतिक आयोजनों के अलावा भी सक्रिय भूमिका का अवसर होगा. इस भूमिका के निर्वहन के कारन वे लोगों से जुड़ेंगे और धरातल की समस्या दल के आला नेतृत्व तक आएगी और इसका समाधान होगा इससे संगठन मजबूत होगा. जब संगठन मजबूत होगा और संगठन के पदाधिकारियों का महत्व और पकड़ समाज में बढ़ेगी तो सत्ता के अन्दर वाले पदों के लिए मारामारी कम होगा. 

दूसरा यह भी कि अगर कोई अपनी गलतियों पर सवाल उठाये जाने पर या करवाई होने की दशा में दुसरे दल में शामिल होकर दल को नुकसान नहीं पहुंचा पायेगा क्योंकि उसकी जीत संगठन आधारित होगी और व्यक्तिवाद घटेगा. इसके साथ हीं एक सशक्त नेता को उसकी जगह लाने के लिए दाल में नेता रहेंगे और प्रजातान्त्रिक तरीके से अगर संगठन के नियमों के अनुरूप पूर्ण पारदर्शिता से उनका चुनाव किया जायेगा तो दाल का संगठन और भी मजबूत होगा. अगर क्षेत्रीय दलों को अपना अस्तित्व बचाना है तो संगठनात्मक ढांचा तैयार करना होगा. 


2 comments:

  1. संगठनात्मक क्षमता और कार्यकर्ताओं के बारे में कोई राजनैतिक दल नहीं सोंचता है और अब यह पैसों का खेल हो गया है ... जबतक यह धनबल और बाहुबल का खेल चलेगा तबतक मुश्किल है

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  2. लेकिन इनके पास समय कंहा है सब तो भाषण देने में मस्त है और पैसा के बल पर चुनाव जीतते हैं

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