Tuesday, August 14, 2018

एक अधूरी कविता

ये उछलते-कूदते शब्द अख़बारों के

ये चीखती आवाजें बुद्धू-बक्सदारों के

ये अजीब बेचैनी इन रसूखदारों के

ये छलांग, ये चीखें, ये बेचैनी, ये फिसलन

ये लड़ाई नहीं है न्याय के दरकारों की

न कर भरोसा इन शेख-सरदारों का

ये अब जंग है तुम हकदारों का

ए उठ जाग तू अब आवाज लगा

तेरे, तेरा, तू, तुम्हारा ...................


Friday, August 10, 2018

रुबाई

इस हाल में अकेले अब मेरी रुबाइयाँ आवाज उठा नहीं सकती
ये अब इन दोमुंहे और मिथ्या निद्रा वालों को जगा नहीं सकती
अब यहाँ सात से सत्तर कि लड़कियाँ - औरतें बिकती-लुटती हैं
जाग, वरना सत्तासीनों कि खोखली कवायदें इन्हें बचा नहीं सकती

Monday, August 6, 2018

बेरहम रहबर : मुजफ्फरपुर होम के बेटियों के न्याय की लड़ाई


photo credit: aajtak 

मुजफ्फरपुर मामले में बच्चियों के इंसाफ की लड़ाई अब उसी दिशा में जा रही है जिस दिशा में उसे जाने से रोकने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी लगे हुए थे. जंतर-मंतर पर विपक्ष का इस मुद्दे पर एक होकर आवाज उठाने की कवायद को लेकर हम जितने आशान्वित थे अब वो आशा धूमिल होने लगी है और इनकी मंशा पर पड़ा धुंध छंटने लगा है. शनै: शनैः यह स्पष्ट होने लगा है कि मुजफ्फरपुर के बच्चियों की लड़ाई को कमजोर करने की कोशिश में पक्ष और विपक्ष दोनों समान भूमिका अदा कर रही है. रहबर बेरहम हो जाए तो पथिक क्या करे.

इसका स्पष्ट उदहारण है जंतर-मंतर पर नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव का भाषण. जिस प्रकार मुजफ्फरपुर के बच्चियों को न्याय दिलाने से ज्यादा वे मधुबनी बालिका गृह (परिहार सेवा संसथान द्वारा संचालित) से भागी हुई बच्ची को मुख्य मुद्दा बनाकर जदयू पर निशाना साध रहे थे वो बच्चियों को न्याय दिलाने के इरादे से नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक अदावत साधने के लिए था. उन्होंने अपने भाषण में इस मसले को ऐसे पेश किया मानो पूरी न्याय की प्रक्रिया सिर्फ उस बच्ची के कारण ही रुकी पड़ी है. दूसरी बात यह कि वे बार-बार उस बच्ची को मुख्य गवाह बता रहे थे जबकि मीडिया रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि वो बच्ची मूक है और मानसिक रूप से विक्षिप्त भी. उसकी गवाही नहीं हुई थी तो मुख्य गवाह को गायब करने की बात कहाँ है.

एक और बात यह कि पहली दफा नहीं है कि होम से बच्चियां भागी हैं. पहले ऐसा कई बार हुआ है. ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अलग से बात हो सकती है और जरुरी भी है. ऐसा नहीं कि उस बच्ची की अहमियत कम है या उसका भाग जाना सवाल नहीं पैदा करता है लेकिन क्या ये सवाल वाकई उन 40 बच्चियों के साथ हुए अन्याय से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि विपक्ष का पूरा महकमा मधुबनी मामले के पीछे लगा है. सनद रहे कि जिस TISS की रिपोर्ट के आधार पर यह कुकर्म सामने आया है TISS की उसी रिपोर्ट में ऑब्जरवेशन होम दरभंगा को good practices की सूचि में रखा गया है जो कि परिहार सेवा संस्थान द्वारा ही संचालित है.

अब यह भी नहीं कहा जा सकता कि जो बातें आम सजग लोगों को मालूम है वो तेजस्वी यादव को मालूम नहीं होगी. तो प्रश्न यह उठता है कि क्या जान बुझकर तेजस्वी यादव सबका ध्यान मुजफ्फरपुर से हटाकर मधुबनी की ओर मोड़ना चाहते हैं? उनको मालूम है कि सीबीआई भी इससे प्रभावित होगी क्योंकि वो आम आदमी नहीं पूर्व उप-मुख्यमंत्री भी हैं. वो कोशिश में लगे हैं कि सीबीआई पूरी तरह मधुबनी के जाँच में लग जाए. इससे मुजफ्फरपुर की जाँच प्रक्रिया में ठहराव आएगा और चार्जशीट दाखिल करने में विलम्ब हो. इससे किसको फायदा होगा ये बताने की जरुरत नहीं है. तो क्या यह कहना गलत होगा कि तेजस्वी एक तीर से दो निशाने लगा रहे हैं. एक तरफ तो वो जदयू को निशाना बना रहे हैं दूसरी तरफ दोषियों को फायदा पहुंचा रहे हैं भले ही यह प्रत्यक्ष न हो. वैसे भी इस मामले में इन्होने भी अपना मुहँ 2 महीने बाद ही खोला है, वो भी महिला संगठनों के लगातार बढ़ते दबाव के बाद.  

इसके इतर कई नए मोर्चे उन्होंने खुलवा दिए हैं जिसमें सबसे ताजा है उनके सबसे अनुभवी और सधे हुए राजनेता शिवानन्द तिवारी का बयान जिसका पासा सुशील मोदी ने फेंका था. सुशील मोदी को मालूम था कि 2008 में हुई घटना को लेकर अगर सवाल किये जाएँ तो कोई न कोई तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव के बचाव में आएगा ही और मुजफ्फरपुर मामले से ध्यान भटकाया जा सकेगा. सुशील मोदी तो अपना गठबंधन धर्म निभा रहे थे तो आपके पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इसमें पड़ने की क्या आवश्यकता थी. ऐसा तो है नहीं कि इस मामले को उठाने के पीछे की मंशा तेजस्वी यादव को और उनकी पार्टी के वरिष्ट नेताओं को समझ नहीं आ रही थी. और अगर आप इतनी बात नहीं जानते तो बिहार का नेतृत्व करने का दावा कैसे करते हैं.

सरकार भी अपने बचाव में शतरंज के विसात पर धड़ा-धड़ प्यादों पर करवाई कर यह दिखा रही है कि वह बहुत ही संवेदनशील है. सच तो यह है इस जघन्य अपराध के लाभार्थियों का बाल तक बांका नहीं हुआ है. अभी तो सिर्फ इतने ही तक बात सीमित है कि इन बेटियों का सौदा हुआ, इनको बेरहमी से नोचा गया. ब्रजेश ठाकुर और उसके साथ के लोग बिकवाल थे. तो खरीददार कौन है? कहाँ हैं वो लोग जिन्होंने इन बेटियों के रूह को बेरहमी से नोचा. मिडिया मुजफ्फरपुर को छोड़कर मधुबनी को प्रमुखता दे रही है क्योंकि इसमें मसाला ज्यादा है. सिर्फ कुछ ही मीडिया के लोग बचे हैं जो अभी भी मुजफ्फरपुर की बात कर रहे हैं जो ये समझ रहे हैं कि मुजफ्फरपुर के दोषियों को बचाने की जुगत में पूरा राजनैतिक महकमा लगा हुआ है भले वह पक्ष में हो या विपक्ष में.

मुख्यमंत्री की मनसा भी इससे ही स्पष्ट होती है कि वो बाल संरक्षण वाले सभी कर्मचारियों को हटा कर प्रसाशनिक कर्मचारियों को लगा दिया गया और राज्य के पूरी बाल संरक्षण व्यवस्था को तोड़कर घुटने पर ले आये हैं. दूसरी तरफ यह भी कि रेल मंत्री रहते हुए नैतिकता के सवाल पर नीतीश कुमार ने इस्तीफा दे दिया था उन्ही के मंत्रिमंडल के समाज कल्याण विभाग के मंत्री के पति पर आरोप लगने के बाद भी उन्होंने मंत्री का इस्तीफा नहीं लिया. क्योंकि उनको डर है कि अगर इनको इस्तीफा देने के लिए कहा गया तो कुशवाहा वोट खिसक जायेगा. और दूसरी ओर उपेन्द्र कुशवाहा इस ताक में हैं कि मंजू वर्मा उनके साथ आ जाए और उनको नीतीश कुमार को साधने का मौका मिले. तेजस्वी यादव भी कई बार उपेन्द्र कुशवाहा को अपने साथ आने का न्यौता दे ही चुके हैं तो कुल मिलाकर यह पूरा मामला राजनैतिक है. बच्चियों की किसी को नहीं पड़ी.

महिला नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों ने तो नेताओं से चुप्पी तोड़ने के लिए इसलिए अपील किया था कि उनका बोलना पीड़ित बच्चियों को न्याय दिलाने में मददगार साबित होगा. लेकिन अपने फायदे के लिए अब ये लोग इस मुद्दे को न्याय प्रक्रिया से बाहर धकेलने में लगे हैं. जब से लोकसभा और विधान सभा (दोनों सदन) में यह मुद्दा उठा है तब से सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला नेताओं की भूमिका कम हो गई. राजनैतिक लोग ही सक्रिय हैं और अपनी रोटी सेंक रहे हैं.

ऐसे में यह जरुरी हो गया है कि गैर-राजनैतिक  महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को वापस लड़ाई की  कमान अपने हाथ में लेनी चाहिए. मुजफ्फरपुर होम की बेटियों के न्याय वास्ते यह जरुरी है कि ये लोग आगे आयें पूरे दम ख़म से मुजफ्फरपुर के दोषियों को सजा दिलाने के लिए काम करें, अन्यथा पूरे बिहार की बात होगी लेकिन मुजफ्फरपुर होम की बेटियों को न्याय नहीं मिलेगा.
रणविजय



Saturday, August 4, 2018

परमेश्वर पूछ रहे थे कहाँ हैं उनकी बेटियां

Photo Source: Unknown

बेटियां पंच की होती हैं और पंच परमेश्वर होते हैं . तो अब तक जो बेटियां गायब हुईं वो परमेश्वर की थी. अब परमेश्वर यह सवाल पूछ रहे हैं कि उनकी बेटियां कहाँ हैं ?

मैंने उनसे पूछा कि आपकी कौन सी बेटी ? क्या नाम था ? कहाँ छोड़ा था आपने उसे ? कहाँ से गम हुईं ?

परमेश्वर ने कहा उसका नाम लक्ष्मी, शबीना, मरियम, प्रीतो, बुधनी, सीता, बबीता .................था ... उनकी संख्या तो ऊपर जाकर रजिस्टर में देखना होगा. उनको बिहार प्रदेश में छोड़ा था और मेरे अनुपस्थिति में वे तुम्हारे कल्याणकारी सरकार के सहयोग से चलाये जा रहे बालिका गृहों, उत्तर रक्षा गृहों और न जाने तुमने क्या-क्या नाम रखे हैं उसी में रहती थीं .... कुल मिलाकर वो तुम्हारे राज्य में, तुम्हारे सरकार के संरक्षण में थीं. पिछले कुछ वर्षो से वे लगातार गायब हो रही हैं ...


मैंने पूछा आपको कैसे पता? क्योंकि ये बात तो किसी अख़बार में पहले आई नहीं और आई भी थी तो स्थानीय स्तर पर जो जिले के बाहर भी जा नहीं पता फिर आपको खबर कैसे मिली ?

परमेश्वर ने कहा कि उनमे से जो ऊपर मेरे पास आईं थीं उन्होंने ने ही बताया कि उन्हें यहाँ (धरती से) से भगा दिया गया है ?

मैंने कहा कि आप उन बालिका गृहों में जाकर पूछो. मुझे क्यों पूछ रहे हो ?

परमेश्वर ने कहा कि वहां जाकर पूछा तो पता चला कि कई वहां से भाग गई हैं (जैसा कि उनके बही-खाते कहते हैं) . जो अगर भाग जातीं, तो यही कहीं होती, लेकिन वो तो यहाँ हैं नहीं. हाँ जो ऊपर आईं थीं उन्होंने दिखाया था अपने जख्म (शरीर के भी और मन के भी) ... बड़े गहरे थे... इतने भयानक थे कि उन्हें देखकर हम सबके रूह कांप गए और मुझे उन्हें ढूंढने के लिए भेजा गया है.

मैंने परमेश्वर से पूछा ? मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?

परमेश्वर ने हाथ जोड़कर कहा ... मैं तो तुम्हारे सरकार को वोट नहीं देता इसलिए सवाल नहीं पूछ सकता. लेकिन तुम तो मतदाता हो, सवाल पूछ सकते हो. ऊपर से सोने पर सुहागा यह कि तुम्हारे यहाँ सूचना का अधिकार कानून भी है. तुम जरा यह पूछ कर बताओ कि पिछले 10 वर्षों में कितनी बच्चियां इन होमों से भागीं हैं (जैसा कि कहा जाता है) ? इनमे से कितनी बच्चियों का आजतक पता नहीं चला (उम्मीदतः तो वो अब तुम्हारी दुनिया में नहीं हैं) ? कितनी बच्चियों ने इन होम के दिवारों के बीच दम तोडा है ? मुझे ये लेखा जोखा ले जाकर ऊपर जवाब देना है. क्योंकि तुम्हारी धरती पर भले बच्चियों की जान की कीमत न हो...  हमारे यहाँ है.

मैंने कहा परमेश्वर आपके सवाल को मैं सरकार के समक्ष पूछ तो लूं मगर 10 रुपये का पोस्टल आर्डर कौन देगा?

परमेश्वर पोस्टल आर्डर लाने डाकघर गये ... तबतक मेरी नींद खुल गई

ये अलग बात है कि परमेश्वर पोस्टल आर्डर लेकर आयेंगे की नहीं ये तो अगली नींद के सपने में ही पता चलेगा.... लेकिन पंच तो ये सवाल पूछ ही सकते हैं क्योंकि बेटी पंच की होती है. जैसा हमारे यहाँ शुरू से कहा जाता है....

माननीय न्यायलय भी पूछ सकती है ... क्योंकि ये मामला उन बेसहारों और बेआवाजों के न्याय का भी है...

बहरहाल एक नागरिक होने के नाते मेरी अपनी सरकार को मेरी मुफ्त की राय यह है कि गायब हुई इन बच्चियों का लेखा जोखा तैयार कर ले क्योंकि हिसाब तो देना पड़ेगा....

Tuesday, July 17, 2018

लोक मैत्री



शहर में  लोक मैत्री के खूब चर्चे हैं मसलन लोक मैत्री अस्पताल, लोक मैत्री पुलिस एवं लोक मैत्री सेवाएँ । एक दिन मुझे भी पुलिस महकमे के एक पदाधिकारी ने लोक मैत्री पुलिस पर परिचर्चा में अपना वक्तव्य देने को बुलाया था । परिचर्चा में अपना वक्तव्य देने के बाद अभी बैठा ही था कि घर से फ़ोन आ गया कि बेटे ने छत से गिरकर हाथ तोड़ लिया है 

मैं तेजी से बाहर निकला और अपनी कार लेकर अस्पताल की ओर भागा 

चौराहे पर पंहुचा ही था कि उल्टी दिशा से एक रिक्शा आते दिखा ... इससे पहले कि मै कुछ समझता .... हलाकि मैंने ब्रेक लगाया ... लेकिन तबतक रिक्शावाला हड़बड़ा  गया ...  वह डरकर ब्रेक भी नहीं लगा पाया और उसने मेरी गारी में टक्कर मार दी .... नतीजतन उसका रिक्शा उलट गया और वह गिर पड़ा। 

मैं कार से बाहर निकला और उसको घुड़की पिलाई।  निरीह प्राणी की तरह रिक्शे वाले ने हाथ जोड़कर कहा साहब गलती हो गई। उसकी मुद्रा देखकर मेरा गुस्सा काफूर हो गया।  उसपर मैं जल्दी में भी था सो रिक्शा उठाने में उसकी मदद करने लगा। 

इतने में एक पुलिस वाला जो चौराहे पर पेड़ के नीचे खड़े रहकर अपनी ड्यूटी कर रहा था वह हमारे पास पहुंचा और मेरी ओर मुख़ातिब होकर बोला "मार दिए न गरीब आदमी को" !

मुझे ये जानकर अच्छा लगा कि चलो, इसे हमदर्दी है रिक्शेवाले से, आखिर लोक मैत्री पुलिस है। 

लेकिन मैं उसके सामने अपनी बेगुनाही भी साबित करना चाहता था...और यह अत्यावश्यक भी था ...   क्योंकि जब भी सड़क पर किसी को ठोकर लगता है तो ठोकर मारने वाले, और ठोकर लगने वाले के अलावा, वहां इकठ्ठा हुआ सभी व्यक्ति को अपने न्यायधीश होने का गुमा होने लगता है ... और देश की अदालतों में फैसला तो वादी के स्वर्ग सिधारने के बाद भी आता है लेकिन इन न्यायधीशों की खूबी यही है कि ये फैसला त्वरित करते हैं ...  न्यायपालिका और कार्यपालिका के लेटलतीफी और नकारेपन के खिलाफ जो गुस्सा होता है वो उसका बदला यहीं लेने लगते हैं। 

इससे पहले की मैं अपनी बेगुनाही साबित करता ...  तबतक रिक्शे वाले ने पुलिस वाले को हाथ जोड़कर कहा कि साहब, इसमें इनकी गलती नहीं थी।  लेकिन पुलिस वाले ने उसे बीच में ही टोकते हुए चुप रहने को कहा....और रिक्शावाला डर कर चुप हो गया। 

मैंने बात बिगड़ता देख अंग्रेजी में बोलना शुरू किया ताकि पुलिस वाले पर धौंस जमाया जाय। वैसे भी कहा जाता है कि अंग्रेजी बोलने के मतलब है कि आप ज्यादा जानकर और रसूख वाले हैं ... एक कहावत है अंग्रेजी में "एवरीथिंग साउंड्स गुड इन इंग्लिश" ...  

5 मिनट तक मेरी अंग्रेजी सुनने के बाद पुलिस वाले ने कहा ... वह सब तो ठीक है लेकिन धक्का तो लगबे न किया है ... है कि नहीं ?... क्या जी ?... रिक्शे वाले से पूछा ... रिक्शे वाले ने हामी में सर हिलाया  ... नहीं हिलाता तो अगले दिन उसकी शामत आ जाती । 

पुलिस वाले ने  मैत्रीपूर्ण तरीके से इसका रास्ता सुझाया ... छोड़िये ... एक काम कीजिये ... 50 रूपये रिक्शे वाले को दे दीजिये इसका पेडल टूट गया है ... और 100 रुपया हमलोग को दे दीजिये आखिर आपही लोग के सेवा के लिए न धुप आ बरसात में  में खड़ा रहते हैं ... मैंने सोंचा इतनी लोक मैत्री पुलिस है अपनी, हम बेकार ही इसपर चर्चा करते रहते हैं ... 


Monday, July 9, 2018

तब मैंने समझा (कविता)


1

जब पहली बार
खल्ली पकड़ी
ना, पकड़ी नहीं
पकड़ाई गई
तदुपरांत
लिखवाया गया
पकड़े था कोई
मेरे हाथ
फिर कुछ आड़ी-तिरछी
कुछ ऊपर नीचे
फिर कुछ उसका नाम
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

2
फिर कहा गया
जो सिखा है
उसे जोड़ो
अन्यथा वो
बेमतलब है
या कम से कम
किसी काम का नहीं
फिर उन्हें
जोड़ना सिखा
फिर उसका कुछ
अर्थ बताया गया
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

3
फिर कहा गया
कि शब्द अकेले
नाकाफी हैं
सीखो इनका
विन्यास बिंधना  
फिर जैसे माँ
अपनी बालों को
गूंथा करती थी
मैंने शब्दों को
गूंथना सिखा
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

4
जब उन
शब्द विन्यासों को
एक वाकय का
रूप दिया
तब कहा गया
इनका तारतम्य रखो
अपनी बुद्धि को चुनौती दो
अपनी समझ से संघर्ष करो
फिर लिखो
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे

5
जब मैंने सिखा
वह सब
नाराज हो गए
कई लोग
कुछ ने कहा
विवेक से काम लो
व्यावहारिक बनो
चुप रहना सीखो
अपनी समझ बढ़ाओ
समझौता करो
तब मैंने समझा
यही सीखना है मुझे
समझौता करना ... चुप रहना ...



Tuesday, July 3, 2018

क्यों लोग एक घटना में सड़क पर उतरते हैं और दूसरे में नहीं ?


सामाजिक सरोकारों को लेकर समाज में चिंतन का तक़रीबन शून्यता के स्तर तक पहुँच जाना, चिंता का विषय है। एक तरफ तो इसने हमारे बीच संवेदनहीनता को बढ़ावा दिया है, वहीँ दूसरी ओर हैवानियत को पोषित भी किया है। पक्ष और विरोध की धारा में हम इस तरह बंटे हैं कि जब किसी घटना के बाद कोई भी नागरिक पहल होती है, तो कुछ लोग इसपर सवाल करते हैं। इसे हमेशा किसी दल के पक्ष समर्थन या विरोध के रूप में देखा जाता है। ऐसी-ऐसी घटनाएँ सामने आती हैं, मानो इंसानियत समुद्रतल में कहीं डूब गया हो।

आज सोशल मीडिया, समाज में अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा साधन एवं मंच है। अतिश्योक्ति न होगी अगर यह कहा जाय कि सोशल मीडिया पर जो तस्वीर बन रही है वह हमारे समाज का प्रतिबिम्ब है। जो प्रश्न सोशल मीडिया पर पूछे जाते हैं वे हमारे समाज के बंटवारे (खासकर राजनीति से प्रेरित) एवं द्वंद्वों की ही अभिव्यक्ति है। ऐसे में यह आवश्यक है कि इन प्रश्नों को अनुत्तरित न छोड़ा जाये। हमें साझा तौर पर इन प्रश्नों के सैद्धांतिक और तार्किक जवाब ढूँढने का प्रयास करना चाहिए।

मैंने सोशल मीडिया पर जो सबसे ज्यादा प्रश्नों को देखा है और सामना किया है वो है आप फलां घटना पर तो बोलते हैं, फलां घटना पर क्यों नहीं बोलते। मैं दो हालिया घटनाओं के मार्फ़त चर्चा को आगे ले जाना चाहता हूँ। पहली घटना जब बक्सर के नंदगाँव में दलितों पर पुलिसिया जुर्म हुआ तब पटना में सोशल एक्टिविस्टों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, लेखकों ने मिलकर एक प्रतिरोध मार्च का आयोजन किया जिसमें मैं भी शामिल था। इस कार्यक्रम की तस्वीर अख़बारों में आने के बाद मेरे कई साथियों ने सोशल मीडिया के मार्फत पुछा कि आप के पास कोई काम-धाम नहीं है क्या?” “आप इन घटनाओं का विरोध करते हैं बाकी में चुप क्यों रहते हैं? ...”

कठुआ में हुई बलात्कार की घटना के बाद जब कैंडल मार्च निकला गया तब भी यह पूछा गया कि इसमें क्यों?” जहानाबाद का विडियो जब वायरल हुआ तो लोग सड़क पर आये। पुनश्च: ये सवाल सामने आया। इसके बाद जब मंदसौर की हैवानियत की खबर आई तो फिर पूछा गया कि आज चुप क्यों?” इस तरह की कई घटनाएँ हैं जब ऐसे सवाल पूछे गए। अब यहाँ जो लोग सवाल पूछ रहे हैं उनके बारे में भी जानना जरूरी है क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर दिया जाने वाला जवाब तो सवाल पूछने वाले की प्रकृति/चरित्र के अनुसार नहीं बदलेगा, लेकिन सबसे पहले किन प्रश्नों का उत्तर देना है, उसके चयन में यह निर्णायक भूमिका निभाता है।

ऐसे सवाल पूछने वाले ज्यादा लोग डेवलपमेंट सेक्टर/सोशल सेक्टरअर्थात सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले हैं। जिन्हें कायदे से तो इस पहल में शामिल होना चाहिए था लेकिन अपने अंतर्द्वंद्वों एवं सैद्धांतिक/तार्किक अस्पष्टता के कारण दूर खड़े सवाल कर रहे हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि ये राजनीति है/राजनैतिक मसला है/ राजनीति से प्रेरित है। क्योंकि जिन घटनाओं में पहल हुई है वो सीधे तौर पर सरकार के विरुद्ध हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे पहल में शामिला न होकर वो राजनीति का हिस्सा बनने से बचते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि दोनों परिस्थितियों में ही वे राजनीति के हिस्सा होते ही हैं। खैर, इस पर किसी और दिन चर्चा करेंगे।

आज यहाँ सर्वप्रथम उस प्रश्न का उत्तर तलाशने की कोशिश करेंगे जो हमसे दूर खड़े साथियों के अंतर्द्वंद्वों को समाप्त करने की कोशिश करे और वे हमारे साथ खड़े हो सकें। इतना ही नहीं, उनको सैद्धांतिक/तार्किक तौर पर मजबूत करें जो कई बार साथ आते हैं पर उनके मन में वह सवाल उठता रहता है कि इस घटना में क्यों ? उस घटना में क्यों नहीं ? यहाँ एक घटना का वर्णन करना समीचीन होगा कि कठुआ मामले में पटना में आयोजित कैंडल मार्च में एक महिला साथी ने भाग लिया, लेकिन घर उन्होंने आकर फेसबुक के मार्फ़त सवाल खड़ा किया कि कठुआ मामले में लोग खड़े हो रहे हैं और बाकी मामले में लोग चुप रहते हैं, ऐसा क्यों? उन्होंने उस मामले को धर्म से जोड़कर भी देखा। ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि पक्षधरता के प्रश्नों का उत्तर तलाशा जाये।

सर्वप्रथम तो यह समझना जरूरी है कि हमारे देश के संविधान ने सभी नागरिकों को न्याय का समान अधिकार दिया है। अगर किसी के साथ अन्याय होता है तो वह पुलिस, न्यायालय के पास न्याय हेतु जा सकता है। इसमें सबसे पहली कड़ी है पुलिस, उसके बाद है न्यायालय और आखिर में सत्तासीन लोग, क्योंकि कई मामलों में उनका पहल जरूरी होता है। अर्थात् अगर आपके साथ अन्याय होता है तो सर्वप्रथम पुलिस के पास जायेंगे जो आपकी रक्षा करेगी। इसके बाद आप न्यायालय का दरवाजा खटखटाएंगे।

किसी गाँव में एक अपराधी ने किसी की हत्या कर दी। पुलिस ने थाने में केस दर्ज कर अपराधी को गिरफ्तार कर लिया अथवा सभी कानूनी प्रक्रिया पूरी अपराधी को पकड़ने की कोशिश कर रही है। दूसरी घटना में एक दबंग/पुलिसकर्मी ने एक व्यक्ति की हत्या कर दिया। पुलिस केस दर्ज नहीं कर रही है। या जानबूझ कर अपराधी को बचाने का प्रयास कर रही है। दोनों ही घटना में एक व्यक्ति की हत्या हुई है लेकिन फर्क सिर्फ इतना है कि प्रथम घटना में पीड़ित पक्ष के संविधान प्रदत्त अधिकारों के अंतर्गत न्याय एवं संरक्षण की प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं है। जबकि दुसरे केस में पुलिस, जिससे संरक्षण की दरकार थी वह हमले कर रही है या उससे इन्कार कर रही है। जाहिर है यहाँ पीड़ित असहाय है, ऐसे में समाज की भूमिका बनती है कि वह उसकी मदद करे और न्याय के लिए आवाज उठाये। स्टष्ट तौर पर कहें तो अगर व्यक्ति आप पर हमला करता है तो पुलिस और न्याय व्यवस्था के पास जा सकते हैं, लेकिन पुलिस हमला करे और आपको न्याय पाने से रोके तो आपके न्याय की उम्मीद समाप्त हो जाती है जो हर व्यक्ति का अधिकार है। इसलिए लोग दूसरी घटना में सड़क पर आयेंगे।

जहानाबाद मामले में पुलिस ने जिस प्रकार से सामूहिक बलात्कार को छेड़छाड़ का मामला बनाकर दर्ज और पेश किया, कठुआ मामले में पुलिस की संलिप्तता और वकीलों का विरोध किया, ऐसे में नागरिक पहल आवश्यक था। नंदगाँव में पुलिस ने पीटा, केस किया और गर्भवती महिला एवं किशोरियों को घसीट कर थाने ले गई। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि नागरिकों के द्वारा जब भी पहल होगी तो वह सत्ता के विरुद्ध ही प्रतीत होगी, क्योंकि व्यवस्था को दुरुस्त और न्यायपूर्ण रखना उसका कर्तव्य है। उनसे कर्तव्यों में चूक होती है, तभी नागरिकों के पहल की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही कई घटनाओं, मसलन भीड़ की हत्या के विरूद्ध भी नागरिकों द्वारा पहल होती है, खासकर तब जब सरकार में बैठे लोग चुप हों, क्योंकि भीड़ इसे मौन सहमति समझता है, इससे भीड़ को शह मिलता है।

हिंसा का कोई भी रूप स्वीकार्य नहीं है, लेकिन सबसे ज्यादा खरतनाक हिंसा वह है, जिसमें व्यवस्था (पुलिस, प्रशासन, न्यायालय) शामिल हो या जिसे सत्ता में बैठे लोगों का समर्थन प्राप्त हो। ऐसे घटनाओं में हमें पहल करना चाहिए। यही हमारी पक्षधरता है, और सामाजिक धर्म भी, हम कमजोर के साथ खड़े हों । और सबसे सरल अर्थ में कमजोर वही है, व्यवस्था जिसके खिलाफ है।



एक अधूरी कविता

ये उछलते-कूदते शब्द अख़बारों के ये चीखती आवाजें बुद्धू-बक्सदारों के ये अजीब बेचैनी इन रसूखदारों के ये छलांग, ये चीखें, ये बेचैनी, ये फ...