जब बोलता हूँ
तो उन्हें बुरा लगता है
क्योंकि ये जो शब्द बान हैं
ज्यादा गहरे
घाव कर जाते हैं
लेकिन ये घाव उन घावों
से ज्यादा दुखदायी नहीं हो सकते हैं
जो तुमने वर्षों से
मेरी आत्मा में सुई चुभोकर
घाव किये हैं
मेरी अगुआवाई का जिम्मा लेकर
जिस अंधेर कमरे में हमे धकेला है
आज ये आवाज
उसी कमरे के घुटन से पैदा हुई है
जिसमे हम तुम्हारी धूर्तता से
पीढ़ी दर पीढ़ी घुटते रहे
और तुम, रौशनी में, हमारे मसीहा बनते रहे
ये आवाज, उस मसीहे के भी खिलाफ है
ये आवाज, उस सत्ता के भी खिलाफ है
हम ये आवाज
रास्ता ढूंढ़ने के लिए नहीं लगा रहे हैं
बल्कि उस शोषक और हमारे मसीहा दोनों के
बनाये उस तिलिस्मी कारागार
को उड़ा देने के लिए लगा रहे हैं
आवाज से जब वो इतना दुःखी हो रहा है
तो सोंचो
उनके तिलिस्म के टुकड़े
जब उनपर गिरेंगे तो
क्या होगा ?
वो बौखलायेंगे, चिल्लायेंगे,
मिलकर हमले करेंगे
इतना ही नहीं
हमारे ही टुकड़े करने की कोशिशें करेंगे
घबराना नहीं, बहक जाना नहीं
ये तम मिटेगा
उजाला आएगा ,
इस रात की सुबह जरूर होगी
बस अपनी आवाज़ें बुलंद करते रहो
उनके ख़िलाफ़ जो हमे लूटते रहे
और अपने मसीहे के ख़िलाफ़
जिसने हमे लड़ने नहीं दिया
Sunday, June 17, 2018
अपने मसीहा के ख़िलाफ़
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एक अधूरी कविता
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Wonderful lines...Picturing the contemporary politics
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